Unemployment in India: डेवेलपमेंट क्षेत्र के अर्थशास्त्री कार्तिक मुरलीधरन कहा है कि भारत का सार्वजनिक क्षेत्र अत्यधिक वेतन विकृति से ग्रस्त है, जहां 95% सरकारी नौकरियों में बाजार दर से पांच गुना अधिक वेतन दिया जाता है जबकि शीर्ष स्तर के निर्णयकर्ताओं को बहुत कम वेतन दिया जाता है। कोलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और अर्थशास्त्री ने कहा कि सार्वजनिक क्षेत्र में वेतन एक बड़ी समस्या है।
उन्होंने कहा कि शीर्ष 1 या 2% लोग जो ज़्यादातर सीईओ की तुलना में कहीं ज़्यादा जटिल फ़ैसले ले रहे हैं, उन्हें उन कौशलों के लिए बाज़ार द्वारा दिए जाने वाले वेतन की तुलना में बहुत कम वेतन मिलता है लेकिन 95% सरकारी नौकरियों में आपको बाज़ार द्वारा दिए जाने वाले वेतन से पांच गुना ज़्यादा वेतन मिलता है।
ज्यादा लोगों को क्यों नहीं मिल पाती नौकरी?
बता दें कि मुरलीधरन भारत में नौकरियों के विकृत पिरामिड पर पूछे गए एक प्रश्न का उत्तर दे रहे थे, जिसमें उन्होंने उत्तर प्रदेश का उदाहरण दिया, जहां 2.3 मिलियन लोगों ने उच्च वेतन और कम कार्य अपेक्षाओं के लालच में 368 चपरासी की नौकरियों के लिए आवेदन किया था। आवेदकों में एक बड़ी संख्या पीएचडी कर चुके लोग भी थे।
उनके अनुसार यह वेतन असंतुलन चार प्रमुख प्रणालीगत विकृतियां पैदा करता है। पहला, यह बड़े पैमाने पर नियुक्तियों को रोकता है। उन्होंने कहा कि अर्थशास्त्र 101 कहेगा कि मुझे कम वेतन देना चाहिए और ज़्यादा लोगों को नियुक्त करना चाहिए लेकिन सारा पैसा मौजूदा कुछ लोगों को भुगतान करने में चला जाता है, इसलिए आपके पास नियुक्त करने के लिए पैसे नहीं बचते।
इस दौरान मुरलीधरन ने तमिलनाडु के एक अध्ययन का हवाला दिया, जिसमें 4,000-5,000 रुपये प्रति माह पर अतिरिक्त आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं की नियुक्ति से अभूतपूर्व परिणाम मिले। उन्होंने कहा, “हमने फिर भी सीखने के परिणामों में उल्लेखनीय सकारात्मक सुधार और कुपोषण में कमी देखी।” ऐसा करने का दीर्घकालिक ROI यानी लगभग 2,000% यानी 20 गुना रहा।
इसके विपरीत उनके शोधपत्र ‘डबल फॉर नथिंग’ से पता चला कि मौजूदा कर्मचारियों का वेतन दोगुना करने से बिल्कुल कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। दूसरी विकृति यह है कि इन नौकरियों का आकर्षक होना भर्ती को असहनीय बना देता है। उन्होंने कहा कि आपको आवेदकों की संख्या लगभग 100 गुना ज़्यादा मिलती है। इसलिए भर्ती प्रक्रिया को चलाना इतना मुश्किल हो जाता है कि एक व्यवस्थित वार्षिक प्रक्रिया के बजाय, आपको इसे तीन, चार, पाँच साल में एक बार चलाना पड़ता है।
बिहार और झारखंड जैसे राज्यों का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि सैन्य स्तर की सुरक्षा भी घोटालों को रोकने के लिए पर्याप्त नहीं है। पेपर लीक का जोखिम बहुत ज़्यादा है, इसलिए आप बाज़ार से ज़्यादा भुगतान करके अपने सिस्टम को पंगु बना देते हैं।